एक कहावत है कि अपनी खुद की नज़र अपने परिवार पर या किसी अपने पर सबसे पहले लगती है। दिन बड़े हसी ख़ुशी
से कट रहे थे। छोटा सा हँसता खेलता परिवार था मेरा। मेरे परिवार में मेरे पति, दो बच्चे, और सास ससुर, हम सभी ख़ुशी
से रहते थे।
मैं एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका हूँ। मेरे पति एक सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं। बच्चे बड़े हो गए थे, लेकिन बस इतने ही कि अपना काम खुद कर सकें। छोटा बेटा छठवीं क्लास में था और बड़ा बेटा आठवीं क्लास में। एक दिन रात को टहलते-टहलते विचार आया कि बिना किसी परेशानी के बच्चे इतने बड़े हो गए हैं। ऐसा लगा कि जैसे वक़्त का पता ही नहीं चला।
सुबह स्कूल जाना, दोपहर में घर आना और बच्चों को पढ़ाना, घर के काम करना, कब रात हो जाती थी पता ही नहीं चलता था। लेकिन, हमारी खुशियों पर ग्रहण लगने वाला था। थोड़े समय बाद ही मेरे पैरों में सूजन रहने लगी। लोगों ने कहाकि सारा दिन खड़े रहने से कभी-कभी ऐसा हो जाता है। कुछ समय तक ऐसा ही चलता रहा, लेकिन जब सूजन बढ़ गयी तो हॉस्पिटल कि तरफ रुख किया। पास के हॉस्पिटल में दिखाया पर कुछ असर नहीं हुआ। जयपुर के हॉस्पिटल में दिखाया, काफी दवाइयां चली पर कुछ ठीक नहीं हुआ, न सूजन का कारण पता चला और न ही कोई आराम हुआ। लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि पैर गल गए हैं, काटने भी पड़ सकते हैं।
वो कहते हैं ना कि बीमारी में लोग ज़्यादा सलाह देते हैं और हम मान भी लेते हैं, हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। अलग-अलग हॉस्पिटल में दिखाया लेकिन कोई असर नहीं हुआ। किसी ने कहा कि मेदांता हॉस्पिटल में दिखाओ, हम वहां गए, काफी सारे टेस्ट हुए। ये भी नहीं पता था कि किस डॉक्टर को दिखाएं, वही के किसी डॉक्टर ने कहा कि अमुख डॉक्टर के पास जाओ। वहा से इलाज चला, कुछ दिनों तक दवाई, स्टेरॉइड्स और कुछ विटामिन की गोलियां दी गयी।
उस वक़्त तो सब ठीक हो गया। लेकिन ये तूफ़ान से पहले वाली शांति थी। समय करवटें लेने लगा। जिंदगी सामान्य हो गयी, वही रूटीन, सुबह जाना, बच्चों को देखना, काम करना आदि। एक दो साल सही चला। पर 2018 में फिर से दिक्कत आने लगी। पैरों की और हाथों की उँगलियों में छोटी-छोटी गाँठ बनने लगी। पास के डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने देखते ही कहा कि ये तो किडनी की प्रॉब्लम की वजह से है। छोटे स्तर का टेस्ट उन्होंने अपनी लैब में ही किया। टेस्ट पॉजिटिव निकला। उन्होंने सुझाया कि हम किसी बड़े हॉस्पिटल में किसी अनुभवी डॉक्टर से सलाह ले। हमारे दिमाग में वही हॉस्पिटल था, मेदांता, क्योंकि वही पहले वाली दिक्कत से छुटकारा मिला था। डॉ. रीतेश को दिखाया, पर किडनी की प्रॉब्लम इतनी बड़ी होगी ये पता नहीं था। शरीर काफी तंदुरुस्त था तो पता ही नहीं चलता था। बाहरी दिक्कत कुछ नहीं थी। अंदर काफी प्रॉब्लम शुरू हो गयी थी। इसकी जानकारी नहीं थी। स्कूल चलता रहा। काम की व्यस्तता में बीमारी का ज़्यादा पता ही नहीं चला। दवाईयां चलती रही। डॉक्टर ने भी इसकी गहराई के बारे में कुछ नहीं बताया।
मुसीबतें कुछ कम न थी। डॉक्टर रीतेश ने फरीदाबाद में हॉस्पिटल ज्वाइन कर लिया। लेकिन नारनौल से फरीदाबाद काफी दूर होने की वजह से सोचा कि जयपुर दिखाया जाए। जयपुर में छह से सात महीने इलाज चला लेकिन किडनी डैमेज बढ़ता ही चला गया। एक दिन अचानक डॉक्टर बोले कि आपका किडनी ट्रांसप्लांट करवाना पड़ेगा और यही एक मात्र उपाय है। ऐसा तुम्हारी biopsy रिपोर्ट कहती है। हमारे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी, हम सुन्न रह गए, मेरे पति का डॉक्टर से विश्वास हट गया क्योंकि biopsy तो हुई ही नहीं थी। हमने विचार किया कि किसी दुसरे डॉक्टर से राय लेनी चाहिए। काफी विचार विमर्श के बाद हम डॉ. रीतेश के पास वापिस गए। वह काफी हेल्पफुल स्वभाव के है।
उन्होंने बताया कि इधर-उधर भागने की वजाय किडनी ट्रांसप्लांट पर विचार करो क्योंकि किडनी ने 70% काम करना बंद कर दिया है और यही एक मात्र उपाय है।
पैरों में फिर से सूजन आने लगी। अब छोटा बेटा आठवीं में और बड़ा बेटा दसवीं में आ गया है। किडनी मैच करने के लिए जांचें शुरू हो गई। घर का माहौल काफ़ी तनाव भरा हो गया। मेरा हंसना, बोलना सब ख़त्म गया था। मैं सुन्न हो गयी थी और सोचती रहती थी कि मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ है। मेरे परिवार का, मेरे बच्चों का मेरे बाद क्या होगा, धीरे धीरे तबियत और ज्यादा ख़राब होती रही। अनेक इन्फेक्शन्स, उल्टियां शुरू हो गयी, खाना पीना बंद हो गया था। डॉक्टर ने हॉस्पिटल में भर्ती कर लिया था। दो दिन का पचास-साठ हज़ार का बिल बन गया था। हमारी हेल्थ पालिसी थी वो भी जमा करवा दी थी। लेकिन भाग्य ने यहाँ भी साथ नहीं दिया। पालिसी रिजेक्ट हो गयी। कोई टेक्निकल पॉइंट था और 4-5 लाख रुपये पालिसी में डूब गए।
हॉस्पिटल से छुट्टी लेकर हम घर आ गये। बेटे की सेमेस्टर परीक्षाएं शुरू हो गयी थी। एक तरफ उसके बोर्ड के इम्तिहान की चिंता और दूसरी तरफ मेरी चिंता। मेरे पति काफ़ी परेशान रहने लगे। मेरा इन्फेक्शन बढ़ता ही चला गया। डॉक्टर ने कहा कि डाइलिसिस करना पड़ेगा। मैं काफी डर गई थी क्योंकि डाइलिसिस के आगे कुछ नहीं होता, डाइलिसिस आखिरी पड़ाव होता है। वहीं हुआ जिसका डर था, आखिरकार डायलिसिस करना ही पड़ा क्योंकि ट्रांसप्लांट का इंतज़ार करते-करते मैं ज़्यादा बीमार हो जाती। दो दिन बाद फिर वही डाइलिसिस के लिए हॉस्पिटल की तैयारी शुरू। डाइलिसिस में 7-8 घंटे लगते हैं। मेरे पति ने कहा कि मैं तुम्हे बिस्तर पर नहीं रहने दूंगा। किडनी मैचिंग की प्रक्रिया चलती रही, मेरे ससुर की किडनी भी मैच की गयी पर उन्हें मधुमेह था तो बात नहीं बनी। मेरी माँ पहले से ही बीमार रहती थी तो चाहते हुए भी वह किडनी नहीं दे सकी। मेरी सासु माँ ने कहा कि मैं दे देती हूँ लेकिन मैंने कहा कि अगर हम दोनों बिस्तर पर होंगे तो घर का क्या होगा।
मेरे पति ने पहले दिन ही किडनी देने की बात कही थी तो मैं बहुत रोई थी और मैंने कहा कि मेरे कारण आप अधूरे हो जाओगे। ऐसा कहने पर उन्होंने मुझे समझाया और मेरा उत्साह बढ़ाया। 3 अप्रैल 2019 को ऑपरेशन का दिन भी आ गया। हमारा ब्लड ग्रुप एक नहीं था तो डॉक्टर ने बताया कि इसका भी एक उपाय है। हॉस्पिटल द्वारा रूस से प्लाज्मा फ़िल्टर की एक मशीन मंगवाई गयी थी लेकिन वह 3 तारीख तक नहीं आ
पायी। ऑपरेशन 4 अप्रैल तक टाल दिया गया। ऑपरेशन से पहले दिल में एक डर था कि पता नहीं क्या होगा। लेकिन ऑपरेशन सफल रहा और आज दो साल हो गए हैं।ज़िंदगी सुकून से चल रही है। रूटीन जांच के लिए जाना होता है पर ये डाइलिसिस से बहुत बेहतर है।
मेरे पति के एक साहसिक निर्णय से आज मैं अपने बच्चों के बीच हूँ। उन्होंने समाज की परवाह नहीं की कि कोई क्या कहेगा। उनके कारण आज हमारा परिवार एक सुखी परिवार है। उनको कोई परेशानी नहीं है, वह स्कूल जाते हैं, जॉगिंग पर जाते हैं, और रस्सी भी कूदते हैं। लोग डरते है कि अंगदान करने से पता नहीं हमारा क्या होगा। आज हम दोनों स्वस्थ जीवन जी रहे हैं। अंगदान दूसरे व्यक्ति को एक नया जीवन देने के बराबर है, मानो वह अंगदाता एक फरिश्ता बन कर आया और जीवन को फिर से खुशियों से भर गया।
अंगदान महादान है। सभी अंगदाताओं को मेरा नमन।
सुदेश रानी और सुशील सैनी
Madam
Beautifully composed and displayed
Salute for ur sincere efforts for
Spreading the importance of organ donation amoug the people.